कौन ले आता है अचानक मुझे यहाँ
जहाँ
फिर से ढूंढना होता संतुलन
फिर से गढ़ना होता समन्वय
धीरे धीरे सहेजना होता बिखरी हुई आश्वस्ति को
जैसे चित्र पहेली में
अपने ही हाथ पाँव जोड़ कर
अपना पूरा रूप रचना पड़े
चलते चलते
कौन ले आता है मुझे
यहाँ
जहाँ यकायक सब कुछ निःसार सा
उदासीनता के कुहासे में
पहचान की पुकार
पूछता है कोई
मुझसे मेरा परिचय
और जैसे
सत्यापित करना चाहता है
मैं जो हूँ
वह सचमुच मैं ही हूँ न
सत्यापन के इस प्रयास में
धीरे धीरे
छूट जाता है
निरंतरता का एक मधुर रस
अपने घर में अपने होने का सहज भाव
सहजता और सन्तुसन प्राप्ति के युद्ध में
मेरा साथ देते शब्द
न जाने कैसे
हर लेते हैं चिंता मेरी
जगा देते हैं एक गहरी आश्वस्ति
की
हो ही जाएगा
धीरे धीरे
ठीक ठाक
सब कुछ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ अगस्त २०१३
2 comments:
ईश्वर पर आस्था हो तो आश्वस्ति बनी रहती है ...!!
सुंदर भाव ....!!
एक पल हैं हम, त्यक्त प्रतीक्षित, दूजे में आश्रय की गोदी।
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