अब यह जो
अदृश्य झरना सा
बहता है
शांत, स्निग्ध, सौन्दर्य का भाव सुनाता
यह
स्त्रोत आनंद का
है तो गतिमान
फिर भी
इसके ठहर जाने की चाह को
जब देखता हूँ
लगता है
शरारती बच्ची सा
चेहरा कामना का
हंस कर
मुट्ठी भर हवा से
भर देता उसकी झोली
२
यह जो है
समागम सा
पूर्णता का पूर्णता में
यहाँ कौन गाने वाला
कौन नर्तक
किसके हाथ बजे है मृदंग
अभेद में भेद का
यह स्वांग
आवश्यक है
उत्सव उत्पन्न करने
वह जिसने
बनाया
जीवन उत्सव
क्या वह जानता था
एक दिन
गायक, नर्तक और वादक
अलग अलग दिशाओं पर
अपना आधिपत्य मान कर
समन्वय को ही
एक दुर्लभ समीकरण बना देंगे
पृथ्वी पर
३
अभी कुछ और दूर
चल सकता हूँ
हवाओं के गीत सुनता
अभी सुन सकता हूँ
कुछ और कहानियां क्षितिज से
अभी
नहीं हुआ शेष
यह
निथर कर मक्खन का
सतह पर आना
वह
जिसने मथनी चला कर
उजागर किया है
मक्खन मेरे भीतर
उसे ही सौंपना है
यह
वैभव शुद्ध आनंद का
अशोक व्यास
२४ अगस्त २०१३
1 comment:
मन को मथ कर मन निखरा है।
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