अचानक
एक कुछ सरक जाता है
छुप देता है
कुछ करने, बनने, रचने, जताने की चाह
एक शिथिलता
एक ठहराव
स्पंदन अनंत के
यह धीमे धीमे
उमगा देते हैं
राग एक महीन, मंथर, अचीन्हा
अपने आप में गुम
कई शताब्दियों का गुलकंद चखता
अधमुंदी आँखों से देखता
बाल आदित्य की लालिमा
तृप्त हूँ
छूकर इस क्षण को
जिसमें सम्माहित हैं तीनो काल
यहाँ क्यूं कर पुकारूं
उसे
जो सरक गया है
जिसके साथ चली गयी है
कामनाओं की धमकती ताल
मैं
हंसता-खिलखिलाता
पूर्ण निष्काम
अनुपस्थित उपस्थित सर्वत्र
विरोधाभासों का सरस सेतु
सुनता-सुनाता
असीम संवेदना का अनहत नाद
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ अगस्त २०१३
1 comment:
आत्म का विस्तार कण कण तक फैलता।
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