Thursday, August 22, 2013

असीम संवेदना का अनहत नाद


अचानक 
एक कुछ सरक जाता है 
छुप देता है 
कुछ करने, बनने, रचने, जताने की चाह 
 
एक शिथिलता 
एक ठहराव 
स्पंदन अनंत के 
यह धीमे धीमे 
उमगा देते हैं 
राग एक महीन, मंथर, अचीन्हा 
 
अपने आप में गुम 
कई शताब्दियों का गुलकंद चखता 
अधमुंदी आँखों से देखता 
बाल आदित्य की लालिमा 

तृप्त हूँ 
छूकर इस क्षण को 
जिसमें सम्माहित हैं तीनो काल 

यहाँ क्यूं कर पुकारूं 
उसे 
जो सरक गया है 
जिसके साथ चली गयी है 
कामनाओं की धमकती ताल 
 
मैं 
हंसता-खिलखिलाता 
पूर्ण निष्काम 
अनुपस्थित उपस्थित सर्वत्र 
 
विरोधाभासों का सरस सेतु 
सुनता-सुनाता 
असीम संवेदना का अनहत नाद 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२२ अगस्त २०१३
 
 
 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

आत्म का विस्तार कण कण तक फैलता।

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