इस बार
आकाश से
उजियारा खनकदार सिक्का
उतर कर
आ बैठा उसकी हथेली में
हाथ की रेखाओं में
फ़ैल गयी
सुरमई आभा कृपा की
उसने
आनंद के ज्वार में
खुल कर
गा दिया
एक नया गीत अनंत का
और फिर
हो रहा
अपने में सम्माहित
जैसे
परे हो चला हो
होने न होने से
मौन की माधुरी में घुली
सहज, शांति, स्निग्धता शाश्वत
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जुलाई २० १३
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