Monday, July 29, 2013

आत्मीय अनुराग


 
सहसा 
फिर दिखाई दे रहा आकाश,
बाहें फ़ैल कर 
हो रहीं पंख सी ,
 
तत्पर हूँ 
उड़ान भर कर 
गगन से सम्बंधित 
होने का 
उत्सव मनाने ,
 
२ 
सिंचित अनुग्रह बरखा से 
अंतस 

उमड़ रहा
आत्मीय अनुराग 
 
तत्पर 
विस्तार से एकमेक होने 
 
देख रहा 
छूट रहे बंधन 
 
मुक्त होना 
कितना सहज कर देती है 
उसकी दृष्टि 
 
-------------
 
धुंधले से 
सूर्य देव 
धुल प्रसरित
दूर क्षितिज तक 
मिटाती भेद 
धरा और गगन का 
एक नरम कोमल गिलाफ ओढ़े 
धीरे धीरे 
अंगड़ाई लेकर 
उठने की तैय्यारी में है 
भोर 
 
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 अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२९ जुलाई २०१३ 

4 comments:

वाणी गीत said...

खूबसूरत बिम्ब !

प्रवीण पाण्डेय said...

मन बसी प्रेम की टीस को कोई स्थिर आधार मिल जाये।

अनुपमा पाठक said...

शब्दों की चित्रकारी से विम्बित सुन्दर भाव!

Dr. Shorya said...

बहुत सुंदर, वाह कम शब्दों में बात को कहना आसान नही होता

सुंदर मौन की गाथा

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