सहसा
फिर दिखाई दे रहा आकाश,
बाहें फ़ैल कर
हो रहीं पंख सी ,
तत्पर हूँ
उड़ान भर कर
गगन से सम्बंधित
होने का
उत्सव मनाने ,
२
सिंचित अनुग्रह बरखा से
अंतस
उमड़ रहा
आत्मीय अनुराग
तत्पर
विस्तार से एकमेक होने
देख रहा
छूट रहे बंधन
मुक्त होना
कितना सहज कर देती है
उसकी दृष्टि
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धुंधले से
सूर्य देव
धुल प्रसरित
दूर क्षितिज तक
मिटाती भेद
धरा और गगन का
एक नरम कोमल गिलाफ ओढ़े
धीरे धीरे
अंगड़ाई लेकर
उठने की तैय्यारी में है
भोर
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अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ जुलाई २०१३
4 comments:
खूबसूरत बिम्ब !
मन बसी प्रेम की टीस को कोई स्थिर आधार मिल जाये।
शब्दों की चित्रकारी से विम्बित सुन्दर भाव!
बहुत सुंदर, वाह कम शब्दों में बात को कहना आसान नही होता
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