कभी कविता लिखना
ऐसे था
जैसे सांस लेना
और
अभी
तैरते तैरते
कविता की और
ज्यों ज्यों
हाथ बढाता हूँ
कविता को अपने से
दूर
और दूर
खिसकते हुए पाता हूँ
जोड़-गणित
साथ लगा है
तैरते हुए भी
कविता को अपने ईमानदार होने की खबर
पहुँचाने में
सफल नहीं हो पाता हूँ
२
ये
जो जोड़- गणित है
दरअसल
बही खाता सा है
खोने पाने का
संतोष के लिए
नए नए बहाने
बनाने का
इसके चक्कर में उलझ उलझ कर
दिखाई नहीं देता
इस सारे खेल में सचमुच
न तो कुछ आने का
ना ही कुछ जाने का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ अप्रैल २० १ ३
3 comments:
शब्दों को अंकों ती तरह जोड़कर उत्तर निकालने का प्रयास।
dhanywaad Rajesh Kumariji,
Praveenjee, baat aakee badee sateek hai
बहुत खूबसूरत ......!!!
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