Tuesday, April 2, 2013

अपनी पूर्ण पहचान के लिए


इस बार 
हो गयी उसकी करारी हार 
किनारे पर 
छूट गयी थी पतवार 
सहसा प्रश्न पूछने 
लगी मंझधार 
डूब ही जाओ ना 
क्या धरा है उस पार 

२ 
यहाँ उसे लगा 
धारा के अपनेपन में छल है 
बीच धार जो डूबा 
वो तो आँख से ओझल है 
सहसा समझा आया उसे 
बिना धरा के 
ना तो उसका आज है 
न उसका कल है 
३ 
फिर प्रेमसहित 
धारा से कहा उसने 
प्रस्ताव फिर कभी करूंगा स्वीकार 
आज तो चल निकलना है 
बना कर 
बाहों से पतवार 
किनारे पर 
छूट गया मुझसे 
अपने होने का सार 
अपनी पूर्ण पहचान के लिए 
जाना ही होगा 
मुझे उस पार 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२ अप्रैल २० १ ३

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कल्पना कितनी सच हुयी, यह देखने तो जाना ही होगा।

Unknown said...

Bahut Sundar Ashokji ........!!

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