हो गयी उसकी करारी हार
किनारे पर
छूट गयी थी पतवार
सहसा प्रश्न पूछने
लगी मंझधार
डूब ही जाओ ना
क्या धरा है उस पार
२
यहाँ उसे लगा
धारा के अपनेपन में छल है
बीच धार जो डूबा
वो तो आँख से ओझल है
सहसा समझा आया उसे
बिना धरा के
ना तो उसका आज है
न उसका कल है
३
फिर प्रेमसहित
धारा से कहा उसने
प्रस्ताव फिर कभी करूंगा स्वीकार
आज तो चल निकलना है
बना कर
बाहों से पतवार
किनारे पर
छूट गया मुझसे
अपने होने का सार
अपनी पूर्ण पहचान के लिए
जाना ही होगा
मुझे उस पार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ अप्रैल २० १ ३
2 comments:
कल्पना कितनी सच हुयी, यह देखने तो जाना ही होगा।
Bahut Sundar Ashokji ........!!
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