Sunday, March 3, 2013

समझ की ऊन का गोला


उसने कहा 
इसे मेरी प्रार्थना समझो या जरूरत 
इसे मेरी याचना समझो 
या प्रेम भरा ख़त 
बात ये है 
जगत निर्माता जी 
मेरी समझ की ऊन का गोला 
बार बार 
खुल जाता जी 

मुझे आता नहीं 
करना कुछ निर्माण 
बतलाओ कैसे 
सार्थक हों मेरे प्राण 

इस बार 
एकाग्रता से 
स्वयं को सिद्ध करने का दे ही दें वरदान 
वरना 
यूं ही 
आपके द्वार पर धरना दे बैठ जाऊँगा कृपानिधान 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
३ मार्च २०१३ 


3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सच है, हम तो सहेजने में लगे रहते हैं इस कपास को, आप हैं कि वस्त्र बना देते हैं।

Asha Lata Saxena said...

"मेरी उन का गोला बार बार खुल जाता है --"
बढ़िया है रचना |
आशा

vandana gupta said...

वरना
यूं ही
आपके द्वार पर धरना दे बैठ जाऊँगा कृपानिधान

अब यही करना होगा वो भी कहाँ इतनी आसानी से सुनते हैं

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