धीरे धीरे
न जाने कैसे
छीज जाता है
उत्साह
तिरोहित होती रसमयता
गति का स्वाद बेस्वाद हो जाता
ना जाने कैसे
धीरे धीरे
छूट जाता है
एक वो सिलसिला
जो जीवन को अर्थयुक्त करता है
किसी विशेष काल खंड में
धीरे धीरे
पूरी हो जाती है जब
खोज हमारी
एक सन्दर्भ से
नयी दिशा की पुकार में
अनायास ही छोड़ देते हैं
वह सब
जो नितांत अपना था
अभी कुछ देर पहले
धीरे धीरे
यादों के एल्बम में
पलट कर
देखते हैं जब
अपना ही चेहरा
वहां जगमगाती प्रसन्नता भी
अपरिचित हो चली होती है
हमारे लिए
स्वयं के साथ
नए नए सम्बन्ध बनाते हुए
एक वह सूत्र
जिस पर
सजते जाते हैं
सारे परिवर्तन
सहसा
करता है
आश्वास्त
बदल कर भी बीतते नहीं हम
और ना ही
झूठ हो जाता
वह सब
जो हमने जिया
बस
सत्य के विस्तार की एक झलक देख कर
समन्वित हो जाते हम
जैसे
धीरे धीरे
भूल भी जाती है वह झलक
इस तरह
छेड़ छेड़ कर हमारा संतुलन
सत्य हम पर खोलता रहता है
हमारा विस्तार वह विस्तार
जो हमें
एकमेक करता है सत्य से
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
15 फरवरी 2013
4 comments:
हमारा विस्तार वह विस्तार
जो हमें
एकमेक करता है सत्य से
कुछ है जो बदलता रहता है ...रात-दिन मौसम की तरह ...किन्तु कुछ अटल सत्य अपनी जगह स्थिर रहता है ...और इस तरह बीत कर भी बदलते नहीं हम ...
सुंदर अभिव्यक्ति ...सरस्वती पूजा की शुभकामनायें ...!!
साधू साधू
अतिसुंदर
आभार
बढिया अशोक जी
dhanywaad Anupamaji, Arunji aur Mahendraji
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