तो क्या
यूं ही लौटना होगा
बिना पूरी पहचान लिए
बिना पूरी पहचान दिए
और यह
जिसे मैं पहचानना माने हूँ
कहीं यह
सतह का छल ही तो नहीं
यह क्या
कि छूकर अनछुआ रह जाना
पाकर भी खाली खाली
और
नए नए अनुभवों से स्वयं को भरते हुए भी
एक निरंतर खालीपन सा
यह जो भी है
पूर्णता तो नहीं
न मेरी
न तुम्हारी
तो क्या
इस अधूरे परिचय में ही बीत जाएगा जीवन
बस करते रहेंगे प्रतीक्षा
की कोइ लहर सागर की
आयेगी किसी दिन
लाएगा कोइ सन्देश सागर का
या इस बार
लहरों का आलिंगन करते हुए
चल ही दें
गहराई में सागर की
पूर्णता के लिए
शायद स्वयं को खो देना अनिवार्य है
यह जो विलीन होना है
अनंत सागर में
इससे भय सा जो है
कहीं यह अधूरे परिचय का मोह तो नहीं
यह अधूरापन
जिसे अपना सर्वस्व माने
बैठे बैठे
अब इस क्षण यूं लगा है
इस तरह तो
लौट ही जायेंगे
बिना पूरी पहचान लिए
बिना पूरी पहचान दिए
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
16 अक्टूबर 2012
2 comments:
बिन जाने पथ की परिभाषा, अन्त नहीं आमन्त्रित।
जबरदस्त!!
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