इस बार
उसके पास
कोइ चांदी का सिक्का नहीं था
न सोने की गिन्नियां
वस्त्रों में भी
राजसी ठाट-बात वाली झलक न थी
पर
नदी के किनारे
सादगी से
अपने चेहरे पर
सूर्यकिरण का नया स्पर्श
दिखाई दे गया उसे
2
चलते चलते
फिर स्मरण हो आया उसे
वह जिन रास्तों से होकर
गुजरा है
उनमें कई स्थल ऐसे हैं
जो बार बार देख कर भी
अनदेखे रह जाते हैं
कई शब्द ऐसे हैं
जिन्हें बार बार सुन कर भी
खुलता नहीं उनका परिचय
3
इस बार
सारे यांत्रिक उपकरण छोड़ कर
लौटने को हुआ वो
जब अपने भीतर
कुछ शब्द चुप चाप
साथ हो लिए
उसके पथ से
अँधेरा हटाने
और उसे
अपने आप तक
पहुंचाने
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
28 सितम्बर 2012
1 comment:
ये शब्दों की यात्रा चलती रहे और आप हमे नया दिन नयी कविता देते रहें ....
आभार ....
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