Thursday, September 27, 2012

अनछुई पगडंडियों पर


फिर मैं ढूँढने निकला 
उस जादूगर को 
जिसके झोले में से 
निकल आती 
एक नई कविता 
हर दिन मेरे लिए 

फिर देखने लगा मैं 
उस शाखा को 
जिसके छूने पर 
भिगो देती थीं 
नन्ही नन्ही कवितायेँ 
मेरे अंतस को 

फिर दौड़ा कर दृष्टि 
चाहता था 
दिख जाए 
कहीं, किसी तरह से 
वह एक मोड़ 
जिस पर 
ताज़ा सन्देश धरा है 
अनंत का 
किसी कविता के आकार में 

और फिर 
थक-हार कर 
देखने लगा अपने ही भीतर 
वो स्वप्निल मैदान 
जहां बतियाने उतार आता था 
खुद आसमान 

पर ओझल हो गया था 
वह पूरा संसार 
जो पहुंचा देता था मुझे 
हर सीमा के पार 

फिर अपने सघन एकांत में 
शब्दों का साथ मांगते हुए 
अपने मौन से पूछा मैंने 
कविता का पता 

और 
साँसों ने कहा 
कविता बंधन से मुक्त करती है 
पर बंधे हुए मन के पास 
प्रकट होने से डरती है 

खुल कर आओ 
कविता को बुलाओ 

कविता अपनी सीमायें खोने का नाम है 
कविता सत्य के साथ एक होने का नाम है 

2

मैं 
बने बनाए विचारों के घेरे से परे 
पूर्व निर्धारित अनुभूतियों की पकड़ से बाहर 

अपने गडमड एकांत के साथ 
अनछुई पगडंडियों पर 
चलते चलते 

जब 
पूरी आश्वस्ति से 
गति के साथ तन्मय होने का परिचय जाना 

किसी सूक्ष्म जगत से दिखाई दिया नई कविता का 
चुपचाप उतर आना 

अशोक व्यास
 न्यूयार्क, अमेरिका 
सितम्बर 27, 2012

3 comments:

Anupama Tripathi said...

फिर मैं ढूँढने निकला
उस जादूगर को
जिसके झोले में से
निकल आती
एक नई कविता
हर दिन मेरे लिए

आपकी कवितायें सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण होती हैं ......,प्रभु से प्रार्थना है वो जादूगर आपको मिल जाये और आप पुनः प्रतिदिन लिखें नई कविता ...
शुभकामनायें ...!!

vandana gupta said...

बेहद उम्दा चिन्तन

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्दों का खुलकर जीना हो..

सुंदर मौन की गाथा

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