उसने बाहें फैला कर
सहज ही
नाप दिया विस्तार जगत का
इतना सारा
पर इतना ही
हाँ इतना ही है विस्तार जगत का
जितना समा जाए तुम्हारी बाँहों में
अपनी बाँहों में
अनंत को अलिंगंबद्ध करने के लिए
बस इतना ही करना है
छोड़ दो उसे
जो तुम्हारी बाँहों के फैलाव को
सीमित कर
अंतरहित चेतना पर
खींचता रहता है
लकीर सीमाओं की
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
7 जून 2012
3 comments:
फैली बाहों में सारा संसार समा जाता है।
आपके दार्शनिक चिंतन का भी जबाब नहीं.
छोड़ दो उसे जो तुम्हारी बाहों के फैलाव को सीमित कर 'अंतरहित चेतना' पर खींचता रहता है लकीर सीमाओं की'
कैसे छोड़े,अशोक जी.
आप पर तो गुरु कृपा है.
बहुत दिनों से कोई पोस्ट नही अशोक भाई.
सब कुशल है न.
आपकी नवीन पोस्ट की प्रतीक्षा में
राकेश
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