Tuesday, June 5, 2012

द्वार की देहरी पर


बड़ी देर से
खड़ा है वह
द्वार की देहरी पर
एक कदम बाहर
एक कदम भीतर
हवा न जाने कितनी बार
कर गयी है पार
अनदेखा कर
सीमाओं का सार
और वह
फिर एक बार
होकर तैयार
कर रहा
जड़ता का सत्कार

या अपनी किसी
  निश्चल सपने के साथ
छोड़ नहीं पाता
बीती हुयी बात

अब
थोड़ी देर में
उतरने को है रात
उसने फिर से
टटोला है अपना हाथ
देख कर लकीरें
ढूंढ रहा सपनो की बारात 
अब निकलते निकलते
हो चली है रात
पर उगते सूरज की तस्वीर है
साँसों के साथ

उसकी गति से
फूट रहा है
ऐसा उजाला
दिन जैसी
हो चली है रात


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जून २०१२

3 comments:

Arun sathi said...

साधु-साधु,...

प्रवीण पाण्डेय said...

उत्कृष्ट प्रभाव, उसके साथ रहने के।

Rakesh Kumar said...

अब निकलते निकलते
हो चली है रात
पर उगते सूरज की तस्वीर है
साँसों के साथ

उसकी गति से
फूट रहा है
ऐसा उजाला
दिन जैसी
हो चली है रात

उगते सूरज की तस्वीर साँसों के साथ
तो फिर रात कैसे हो.

लाजबाब प्रस्तुति के लिए आभार अशोक जी.

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