Saturday, April 28, 2012

तुम्हारे पार





क्या कहूं, क्या-क्या मुझे कहता रहा दरिया-ऐ-पल
अब लगे है, कहना-सुनना, दोनों ही जैसे था छल

ये समय का है करिश्मा, या मेरा कोई हुनर
जिससे थी पहचान, वो, जाने गया कैसे बदल

चुप तुम्हारी और देखूं , ये तमन्ना खो गयी
अब तुम्हारे पार कुछ दिखला गया आँखों का जल


अशोक व्यास
      न्यूयार्क, अमेरिका      

2 comments:

abhishek said...

बहुत खूब .................

Rakesh Kumar said...

गहन गंभीर है 'तुम्हारे पार'
काश! उस पार देखने के लिए
आँखों में जल आ पाए.

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