व्यवस्था जो है
ये जीवन की
देह में छुपी संभावनाओं की
हर एक इन्द्रिय में निहित कौशल की
ये क्षमता की
स्वाद ले सकूं
छू सकूं
देख सकूं
सुन सकूं
इन्द्रिय संयोग का आनंद उठा सकूं
ये सब
विलक्षण है न
मन पर होता है असर
निर्मल होने का
निष्कासन उस सब का
जो अपच है
प्राकृतिक ढंग से
हो ही जाता है प्रतिदिन
दिन की
एक एक सीढ़ी पर
गूंजता है
उत्थान का गीत
स्वच्छता, उल्लास, विश्वास, प्रेम, समन्वय
तन और मन के सम्बन्ध को
बनाता हुआ
वह जो
एक सूक्ष्म है
दीखता नहीं है जिसका
अपने भीतर होना
वह कभी ऊबता नहीं हमसे
यानि
उसका रस
हमारे गतिविधियों पर निर्भर नहीं
कहीं ओर से पोषित है
उसकी शक्ति
उसका धैर्य
उसकी महिमा
वह होकर भी
नहीं होता हमारे भीतर
उस तरह की
छेड़-खानी करे हमारे
क्रिया कलापों में
इस सर्व साक्षी तक
अपनी बात पहुचाने
कभी शब्द-कभी मौन
देते हैं साथ मेरा
बात बस इतनी ही नहीं की
संप्रेषित कर दूं अपनी कृतज्ञता
वरन यह प्रार्थना भी
की मुझे क्षुद्रता से छुड़ा कर
एक मेक कर दो
विस्तार के साथ
जगा दो
सेवा का सौन्दर्य मेरे भीतर
दिखा कर सार अपना
अशोक व्यास
२१ अप्रैल २०१२
1 comment:
पूरी क्षमता से जी पाने में अक्षम है मनुष्य।
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