अक्सर
सब कुछ
वैसा ही तो नहीं होता
की
समा जाए हमारी अपेक्षा के आकार में
अक्सर
एक अदृश्य सर्प
लटपटा जाता है
कर्मक्षेत्र की देहरी पर
संशय की फुंफकार से
छुड़ा देना चाहता हो जैसे
हमारा आगे बढना
अनमनेपन में
कई बार
पलट भी जाते हैं हम
किसी दूसरी सीधी पर चढ़ने का
गुनगुना संकल्प लिए
स्वयं को सांत्वना देते
२
इस बार
मिटा ही देना है
इस मिटे हुए सर्प को
अपनी चेतना के
अमृतमय उजियार से
अपेक्षा के साथ
सम्माहित कर
गुरु चरण रज
पावन पथ पर
अदृश्य सर्प भी
संशय नहीं
श्रद्धा वर्धक ही होता है
इसमें कोई संशय नहीं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ अप्रैल २०१२
2 comments:
कर्मों पर सतत पहरे हैं..
क्या उत्कृष्ट रचनाएं है...
सादर बधाई.
Post a Comment