अब भी क्या
उड़ सकता हूँ
तुम्हारे पंख उधार लेकर
ओ स्वप्निल चिड़िया
शिखर तक पहुँच कर भी
सीमा का बंधन
जो जकड़े है मुझे
क्या इसका निवास रहता है
तुम्हारे पंखों में भी
तब भी
जब तुम
धरती से इतनी ऊंचाई पर
अपने मौज में
हवा के साथ
नए नए ढंग से
सारी बस्ती को देखने का
अनूठा अनुभव पाती हो
तब क्या देखती हैं
तुम्हारी आँखें
इतनी गति
इतनी ऊंचाई
कहीं तब तुम्हें
कसक तो नहीं होती
की स्थिर होकर
किसी एक द्रश्य को
पूरी तरह अपना लेने की
शायद
मुक्ति
न गति में है
न स्थिरता में
मुक्ति इन दोनों से परे जहाँ है
वहां का द्वार
छुपा कर रखता है
हमारी आँखों से
वह
जो गति और स्थिरता के युगल बना कर
हमारे होने
और
हमारे 'न होने' से खेलता है
चिड़िया
तुम्हारे पंखों से नहीं
अपनी स्थिरता में ही
आवाहित करनी होगी
अपने गति मुझे
शायद किसी एक पल
उभर आये
वह संतुलन
जो मुझे
गति और स्थिरता दोनों से मुक्त कर दे
ऐसे
जैसे
तुम दोनों पंख फेहरा कर उड़ती हो
मैं भी
गति और स्थिरता के पंख
बना कर
उड़ पाऊँ
उस गगन में
जिसका नाम 'विराट' है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जन २०१२
2 comments:
दोनों में साम्य आवश्यक है..
मैं भी
गति और स्थिरता के पंख
बना कर
उड़ पाऊँ
उस गगन में
जिसका नाम 'विराट' है
काश! हम भी आपके साथ हों.
एक ना एक दिन अपने साथ उड़ना सिखा
ही दोगे आप,ऐसा भरोसा है मुझे..
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