Saturday, January 21, 2012

ना वो क्षण बचता है

 कवितायेँ 
पहली तीन पुरानी
 जनवरी १३, २००५ को लिखी
अभी सामने आ गयी और उसके बाद एक आज लिखी हुई
या यूं करता हूँ
आज यानि २१ जनवरी २०१२ वाली पहले प्रस्तुत कर देता हूँ
ना वो क्षण बचता है
जिसमें हम
हँसते-हंसाते 
आईसक्रीम खाते हैं
ना वो क्षण रहता
जिसमें हम
एक दूसरे से रूठे
रोते-रुलाते हैं

ना वो क्षण रहते
जब आराम से
पोप-कोर्न  खाते
किसी फिल्म में डूब जाते हैं 
ना वो क्षण रहते
जब हम
सपनों की सीढ़ियों पर
डगमगा कर कसमसाते हैं

कुछ है हममें कि
सफलता-असफलता दोनों से
परे चले आते हैं
और लौटते हुए
अपने आप में 
जो, जैसा, जितना बचाते हैं
उसी से
अपने अनुभवों की रचना
करते चले जाते हैं
धीरे-धीरे जब
बचने-बचाने का संतुलित कौशल 
सीख जाते हैं
तो सहज ही
टूट-फूट से परे
अपनी परिपूर्णता में मगन हो जाते हैं 


बचता बस वो है
जिसे हम बचाते हैं
चाहें तो,मिटना छोड़ कर
अमिट हो जाते हैं 


हे राम!
हमारी अनुभूतियों का सच
कितनी जल्दी 
रंग बदल देता है
तो इस तरह
जो कुछ मेरा हुआ
या जिसके होने से
मैं पिघला, ढला, चला
वह सब अगर झूठ होता गया
तो फिर
मी होने का सच
क्या एक छल ही है
और अगर
सचमुच मैं हूँ ही नहीं
तो फिर
कौन लिख रहा है
---
बहुत हल्की बरसात
पेड़ों के बीच धुंध 
बिछा हुआ मौन
इस क्षण 
हर तरफ द्वार हैं
ख्हुलने को आतुर
यदि कोई 
प्रवेश करना चाहे
अनंत में
सहेज कर सुस्ती
चुपचाप पलों में

मैं
कुछ ना हुआ
देखता रहा
कुछ ना होने को
चुप की चुस्की के साथ
--
उसने देख लिया था
वहां तक
अन्दर की आँखों से,

दिखती है
उसकी आँखों  में
तरल करूणा
अपार वात्सल्य
शुद्धि
उजाला,

निर्मल होने की प्रार्थना लेकर
बैठा हूँ उसकी
तस्वीर के सामने
(रमण महर्षि जी को अर्पित)

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कुछ नहीं है शेष बचता,
चल रहा है यज्ञ, स्वाहा।

Arun sathi said...

साधु-साधु

Rakesh Kumar said...

निर्मल होने की प्रार्थना लेकर
बैठा हूँ उसकी
तस्वीर के सामने
(रमण महर्षि जी को अर्पित)

वाह! बहुत सुन्दर प्रार्थना को लेकर
आप महर्षि जी के आगे बैठे हैं.

जैसे हीरा हीरा बनने की ही प्रार्थना करे.

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