Monday, December 26, 2011

विराट का एक मौन आमंत्रण

 
लो
खुल आस्मां के नीचे
विस्तृत मैदान के बीच
खिल रहा है
ये जो 
संवित पुष्प
अपनी सौरभ से 
धरती के ओर-छोर तक पहुंचा रहा है
आस्था, शीतलता और
असीम में तन्मय होने की तरंग
 
इस अतुलनीय स्पर्श में
कोई-कोई 
भूल कर अपना-आप
खो देता है
सीमित इयत्ता
 
पर अधिकांश अपने
घर-गली-गाँव में मगन
 
पहचानते ही नहीं
विराट का एक मौन आमंत्रण
निकल जाता है
उनके आस-पास के
कण-कण को छूता हुआ
ऐसे
कि जैसे
कुछ हुआ ही ना हो
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
२६ दिसंबर २०११                

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सब मगन अपने में,
प्रगतिशील सपने में।

Unknown said...

behtreen likhaa aapne

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...