लो
खुल आस्मां के नीचे
विस्तृत मैदान के बीच
खिल रहा है
ये जो
संवित पुष्प
अपनी सौरभ से
धरती के ओर-छोर तक पहुंचा रहा है
आस्था, शीतलता और
असीम में तन्मय होने की तरंग
इस अतुलनीय स्पर्श में
कोई-कोई
भूल कर अपना-आप
खो देता है
सीमित इयत्ता
पर अधिकांश अपने
घर-गली-गाँव में मगन
पहचानते ही नहीं
विराट का एक मौन आमंत्रण
निकल जाता है
उनके आस-पास के
कण-कण को छूता हुआ
ऐसे
कि जैसे
कुछ हुआ ही ना हो
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२६ दिसंबर २०११
2 comments:
सब मगन अपने में,
प्रगतिशील सपने में।
behtreen likhaa aapne
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