ठीक समय पर
घंटी बजा कर
हर दिन
अपनी ओर से
लगा कर पुकार,
करने लगता हूँ
उससे मिलने
तरह तरह के
कर्म का श्रृंगार,
२
लगता यूं है इस बार
वो आ ही गया आखिरकार
पर छुप्पा छुप्पी के खेल से
सिखा रहा है अगोचर सार
३
नहीं दिखती दर्पण में
प्रसन्नता की ये उजियारी धार
अंतस में धर गया है वो
जिसका अनुपम उपहार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ दिसंबर २०११
2 comments:
कर्म सृष्टि खेल का नियत अंग है।
साधु-साधु
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