Sunday, December 4, 2011

शाश्वत चलचित्र

(चित्र- अशोक व्यास)


वो अब नहीं है
न उसकी मुस्कान
न वो रसभरी बातों के टुकड़े
न वो आत्मीय ऊष्मा का निराकार स्पर्श
न वो उलाहने
जो सन्दर्भ से हट कर 
बन गए एक सेतु की तरह
 
सेतु
जिस पर चल कर
अब भी आ जा सकती हैं
उसकी स्मृतियाँ
 
हमारा होना कितना अस्थायी है
ये जान कर भी
जान नहीं पाते ना
 
कुछ तो खेल सब कुछ बनाने वाले का है
पर ज्यादातर खेल तो हम ही बनाते हैं
 
और फिर
परिचय के खेल में उलझ जाते हैं
अपेक्षाओं के खिचाव में फंस जाते हैं 
चिपकाये हुए परिचय के परे अपने अस्तित्त्व को
अनदेखा कर
सिमटते हैं
सिमटे सिमटे ही शायद किसी दिन लुप्त हो जाते हैं
 
पर जब किसी के न होने का स्थल छू कर आते हैं
नए सिरे से खुदको जानने का उत्साह जुटाते हैं
सोच के सहेजे हुए सामान के मोह में फिर उलझ जाते हैं 
क्षितिज तक पहुँचने की दौड़ से हट नहीं पाते हैं
 
हमें जिस दौड़ के लिए बनाया गया था
कई बार तो उस ट्रैक तक पहुंचे बिना खेल से हट जाते हैं  

ये कविता
संवेदना या सांत्वना नहीं
बस एक आँख के खुलने पर
उतरा हुआ छोटा सा चित्र है

जो कोइ ऐसे चित्रों की श्रंखला देख पाता है 
उसे साँसों में शाश्वत चलचित्र देख जाता है
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ दिसंबर २०११   

 
 

       

1 comment:

Prakash Jain said...

behad behad pasand aayi ye kavita apki...behtareen

हमारा होना कितना अस्थायी है
ये जान कर भी
जान नहीं पाते ना

wah!!!
www.poeticprakash.com

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