कर्म की आपा-धापी नहीं
हंस की तरह
तैरता मन
मुस्कुरा कर
करता है
अभिवादन
हर दिशा का
गति के सौन्दर्य में
सुन लेता है
तृप्ति के सुर
अनायास ही
यह
गति और स्थिरता के बीच का
सहज साम्य
यह
मौन में अनंत की माधुरी का
अवतरण
और
पग पग पर मुक्ति गाथा का
उदार अनावरण
यहाँ पहुँचने पर
न कोई पताका फहराने की बाध्यता
न ढोल-नगारों से उत्सव मनाने का दबाव
अखबार की खबर नहीं है
माँ द्वारा शिशु को गोद में उठाना
थपथपा कर सुलाना
आत्म-दरसन में प्रदर्शन कैसा
बस
बस परमानंद का यह गाढा अनुभव
जो करवाए करो
जो कहलाये कहो
अपने सारे संकल्प उसे अर्पित कर
यूँ ही मस्त रहो
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० नवम्बर २०११
2 comments:
आत्म-दरसन में प्रदर्शन कैसा
बस बस परमानंद का यह गाढा अनुभव
जो करवाए करो
जो कहलाये कहो
अपने सारे संकल्प उसे अर्पित कर
यूँ ही मस्त रहो
वाह!
सद् गुरू देवाय नम:
सुंदर रचना
बधाई !
मेरी नई कविता "अनदेखे ख्वाब"
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