Saturday, November 26, 2011

लहरों के नृत्य में

उसे नहीं मालूम था
एक बुलबुला सा
दीखता है जो हथेली पर
किरणों के स्पर्श से
इस बार
पाने लगेगा विस्तार
और
फ़ैल कर इतना बड़ा हो जायेगा इस बार
की उसमें समा जाए सारा संसार
 
 
उसे नहीं मालूम था
शताब्दियों पहले से
उसके मन की माटी में
धरे बीज
एक दिन फिर से
यूँ अंकुरित होकर
उसके प्रति 
खोल देंगे
परिचय की
विस्मयकारी स्वर्णिम फसल
 
 
उसे नहीं मालूम था
जन्म उसका
एक बार नहीं
बार बार होता है
और
इस तरह अपने भीतर
घटित होते के दरसन करना
सुलभ करवा देता है
स्थिर मुक्ति का
चिर आनंदमय स्पर्श
 
 
उसे मालूम था
अनावरण का यह क्रम
जिसके स्मरण से
जाग्रत हुआ है
उसके चरणों तक
ले जाने वाली
समर्पण नदी का उद्गम
जिस पर्वत से हुआ है
उस पर्वत पर भी
विद्यमान है
उसी की
करुनामय मुस्कान की
सुरभित आभा
 
 
वह अपनी चेतना की कोर से
देख रहा था
युगों का प्रवाह आज जब
मौन में
अब भी झलक रहा था
तात्कालिक सन्दर्भों का बोध
और
सब कुछ जान कर
फिर उसे जान पडा
की 
उसे अब भी सीखना है
दो कदम चलना
दिशाओं के छल के बीच
अपनी धुरी पर संभलना
और लहरों के नृत्य में
बिना उछले उछलना
 
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका  

२६ नवम्बर 2011
              

1 comment:

vandana gupta said...

बेहद गहन अभिव्यक्ति।

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...