( सीमा कोहली जी के चित्रों की न्यूयार्क में आयोजित प्रदर्शनी से प्रेरित चार कवितायेँ-२०११)
कवि - अशोक व्यास
१
कमल दर कमल
सृजनपुष्प श्रृंखला
स्वर्णिम वृत्त
वृक्ष से है वह
या उससे वृक्ष
वह जो देती है
कहाँ से पाती है सब कुछ
शाखा शाखा
धमनी-धमनी
साथ-साथ चलते
कोलाहल और नीरवता
स्वर्ण मेघ बरसाते हैं
परकोटे पर
आभा के
विस्तृत उत्स में
विलीन होकर
उद्भव होता
पूर्णता का
२
कमल की कोख से
प्रस्फुटित मनीषा
विराजित है परिधि पर
खिली हुई उमंगों का नृत्य
बाहें फैला कर
उड़ा रही वह
अगणित पक्षी
स्वर्णमयी चेतना के
वृक्ष की जड़ो से
सोंख-सोंख
अँधेरे- उजियारे सन्देश
भूगर्भ के
रचती है वह
दो विपरीत संसार
अपने अट्टहास में
भ्रमित कर कर
बढ़ा देती
छटपटाहट पूर्णता की
३
कमल दर कमल
समाधिस्थ व्योम कन्या
रचती है
स्वयं को,
स्वयं से स्वयं तक
पहुंचाती शाखाएं
बहाव का स्वर
हहरा कर
प्रकट करता
सौम्य ज्योत्स्ना का
सुनहरा वृत्त
जिसमें
व्याप्त है
एक भंवर
ऊहापोह
जड़ से जुड़े अंधियारे
और
फुनगियों पर ठहरी
संभावना की ओस लेकर
रचे कुछ नया
या मुट्ठी में भर कर
इस क्षण की जड़ता
लौटा दे
चुनौती सृष्टि की
कमल नाल तक
फिर से
४
फूल वसंत के
नहीं ले सकती
जड़ में बैठ कर
समाधि से विलग हो
काले पंछियों से
कर रही संवाद वह
पूछ रही
पता मुक्ति का
यूँ
मुक्ति लुटाती रही है वह
पर
रसीले फलों संग
एकमेक होने के लिए
स्वतंत्र न हो पाने की
छटपटाहट
धरी है
इस बार
उसकी हथेली पर
- अशोक व्यास
कवि - अशोक व्यास
१
कमल दर कमल
सृजनपुष्प श्रृंखला
स्वर्णिम वृत्त
वृक्ष से है वह
या उससे वृक्ष
वह जो देती है
कहाँ से पाती है सब कुछ
शाखा शाखा
धमनी-धमनी
साथ-साथ चलते
कोलाहल और नीरवता
स्वर्ण मेघ बरसाते हैं
परकोटे पर
आभा के
विस्तृत उत्स में
विलीन होकर
उद्भव होता
पूर्णता का
२
कमल की कोख से
प्रस्फुटित मनीषा
विराजित है परिधि पर
खिली हुई उमंगों का नृत्य
बाहें फैला कर
उड़ा रही वह
अगणित पक्षी
स्वर्णमयी चेतना के
वृक्ष की जड़ो से
सोंख-सोंख
अँधेरे- उजियारे सन्देश
भूगर्भ के
रचती है वह
दो विपरीत संसार
अपने अट्टहास में
भ्रमित कर कर
बढ़ा देती
छटपटाहट पूर्णता की
३
कमल दर कमल
समाधिस्थ व्योम कन्या
रचती है
स्वयं को,
स्वयं से स्वयं तक
पहुंचाती शाखाएं
बहाव का स्वर
हहरा कर
प्रकट करता
सौम्य ज्योत्स्ना का
सुनहरा वृत्त
जिसमें
व्याप्त है
एक भंवर
ऊहापोह
जड़ से जुड़े अंधियारे
और
फुनगियों पर ठहरी
संभावना की ओस लेकर
रचे कुछ नया
या मुट्ठी में भर कर
इस क्षण की जड़ता
लौटा दे
चुनौती सृष्टि की
कमल नाल तक
फिर से
४
फूल वसंत के
नहीं ले सकती
जड़ में बैठ कर
समाधि से विलग हो
काले पंछियों से
कर रही संवाद वह
पूछ रही
पता मुक्ति का
यूँ
मुक्ति लुटाती रही है वह
पर
रसीले फलों संग
एकमेक होने के लिए
स्वतंत्र न हो पाने की
छटपटाहट
धरी है
इस बार
उसकी हथेली पर
- अशोक व्यास
4 comments:
एक से बढ़ कर एक कविता किस किस की तारीफ करूं .
ढेरों शुभकामनाएं !
bahut sundar prastuti...
चित्र और शब्द की सुन्दर जुगलबन्दी।
चित्रों को उकेरते सुन्दर शब्दचित्र!
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