Wednesday, October 5, 2011

सीमातीत पहचान





आत्म विश्वास
कभी धरती से उगता है
कभी आस्मां से
टपक जाता है
चोंच में दबा कर ले आती है
कोई चिड़िया
ना जाने कहाँ से

और वह विश्वास
जो भीतर से प्रस्फुटित होता है
जिसे लेकर मैं
तुम्हारी महिमा गाता हूँ

उस अनुभूति के दाता
फिर फिर
तुम्हारे द्वार पर
अपनी अक्षमता और अशक्यता लेकर
मेरे पहुँच जाने पर भी
तुमने आज तक कभी
रोष प्रकट नहीं किया

हर बार
मुझे भी 
अपनी तरह नया कर देते हो
दृष्टि मात्र से
ओ परम पिता कैसे

विस्मित हूँ
अपने होने पर
और
अपनी इस सीमातीत पहचान पर
जो तुमसे है 
और
दिखाई भी नहीं देती
ओ करूणामय! तुम्हारी कृपा दृष्टि बिना




अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ अक्टूबर २०११            

1 comment:

सूर्यकान्त गुप्ता said...

SUNDAR RACHANAA! VIJAYADASHMI PARV KI BAHUT BAHUT BADHAAI...

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...