आज जब
कुछ भी नया नहीं है
कहने को
नीरवता में
नदी के शांत जल की सतह पर
एक कंकर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृति का
और
धीरे धीरे
खुलने लगते हैं
अनकहे रास्ते
देख पाता हूँ
वो सब
जो किया है तुमने
मेरे वास्ते
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आज जब कुछ भी
कहने का अवसर हुआ
तुमने नया-नया बना दिया
हर बात को
जैसे
परत दर परत
कुछ और गहरे में
दिखाई देता रहा
मुझसे पहचान बढाता 'मैं'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ सितम्बर 2011
1 comment:
उस नयेपन को ढूढ़ रहा हूँ।
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