(फोटो- अशोक व्यास) |
कहाँ से बह निकलती है
यह कृतज्ञता की नदी
माँगा हुआ कुछ न मिलने पर भी
खुल जाता है
कैसे
यह कोष
आत्म-संपदा का
२
कहाँ से उतरता है
यह सौम्य चांदनी का
करुण स्पर्श
जिससे धुल जाता
सारा संताप,
तृप्ति का उपहार लुटा कर
स्वच्छ कर देता कोई
मैले मन को,
३
वही भूमि, वही पाँव मेरे
पर
यह कैसा उल्लास,
अनुपम आश्वस्ति
प्रेम और आनंद छलकाती
मेरी धडकनें
और
साँसों को विस्मित करता
एक सुर यह
जिसका है
उसे ही गाने के लिए
मचल रहे हैं शब्द
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ अगस्त २011
1 comment:
इस प्रवाह में कोई व्यवधान न हो।
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