Wednesday, August 31, 2011

खेलते-खेलते


खेल तो वही है
रात को विश्राम
शक्ति संचयन
स्फूर्ति के साथ
दिन भर 
 शक्ति संजोने और प्रकट करने का क्रम


  खेल तो वही है
 चुपचाप अपने जैसा होने के
ओजस्वी संकेत लेकर आता सूरज

 हमारे हिस्से की किरणों का 
 प्रसार करने
 दिशा-दिशा में 
 अपनी पहचान पुख्ता करने
निकल पड़ते हम 


वही खेल
 हर दिन
 इतना नया नया
इस पर विस्मित 
कभी जब
 खेल छोड़ कर 
  खेल रचाने वाले को
  देखने में लीन होने लगता हूँ
  हँसते-हँसते कह देता है वह 
"अरे भोंदू!
 खेलते-खेलते
  खेल में देखो ना मुझे"


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३१ अगस्त २०११  

2 comments:

Unknown said...

प्रवाहमयी कविता , खेलते रहना ही होगा सत्य कहा

प्रवीण पाण्डेय said...

सच है, जिसका खेल है, उसी पर ध्यान नहीं जाता है।

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