सहसा
उसने फेंक दी
कई सारी पुरानी किताबें
शब्दों में छुप कर घात लगाते अतीत से मुक्त
इस बार
जब वो देखने लगा आस्मां
उड़ गए थे सपनो से
कुछ रंग
२
सहसा
भूत और भविष्य से मुक्त होकर
वर्तमान का आलिंगन करने
बढ़ाते हुए बाहें
सूरज से मिल गयी उसकी आँख
वर्तमान ने आत्मीयता से
अपनाते हुए उसे
कह दिया फुसफुसा कर
मुझ ही में समाया है
बीता हुआ
और आने वाला कल
पर दिखता सिर्फ मैं हूँ
क्योंकि
तात्कालिक बन कर मिलते हो मुझसे
मिलो कभी सर्वकालिक होकर
तो समझ पाओगे
तुमसे अलग नहीं हूँ
मैं कभी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ अगस्त 2011
1 comment:
तात्कालिक और सार्वकालिक भावों में छिपा हमारा जीवन।
Post a Comment