उतर कर
अपनी आश्वस्ति के सिंहासन से
तुम्हें देख कर
अनदेखा करता
छोटे छोटे खेल में गुम होता हुआ
मैं अब
तुम्हें पुकारने की जरूरत नकारता
देख रहा हूँ
बीतते समय के साथ
जो बीत रहा है
वो तुम नहीं हो यदि
तो
मैं भी क्यूं होऊँ?
२
अब
अपने आप पर
इतना अविश्वास हो चला है मुझे
की
छू भी नहीं पा रहा
स्वयं को
और
छल को छूने से ऊब कर
किसी एक क्षण में
अपने पर अविश्वास के बावजूद
छू लेता हूँ
सीधे सीधे तुम्हें
ओ स्वर्णिम विश्वास !
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ अगस्त २०११
1 comment:
अनुपम भाव।
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