आज सुबह की हवा से
छान-छान कर
अपनी हथेली पर
धर रहा हूँ
तुम्हारी वो बात
जिसे लेकर
तुमने साँसों को अपनाया
जिसे सहेज कर
स्वर्णिम सुर खनकाती रहीं
तुम्हारी धड़कने
जिसे सुनाने तुम
कितनी ही सभाओं में जा-जाकर
लोगों को
उनकी ही शक्ति का
स्मरण करवाते रहे
वो बात
जो अब तक
मैंने खिड़की मैं बैठ कर
किसी जुलूस की तरह देखी
वो बात
जो सुन कर
अपना लेने की मुंदरी-मुंदरी चाह जगी
पर
जिसे अपनाने के लिए
छोड़ नहीं पाया मैं
अपने छोटे छोटे खेल
आज सुबह की पवन से
छान- छान कर
सहेज रहा हूँ
तुम्हारी वो बात
अपनी हथेलियों में जब
देखता हूँ
बदल रही हैं
मेरे हाथ की रेखाएं
तड़क कर टूट सी रही है
मोह की एक तंग कोठारी
जिसमें रहते रहते
तुम्हारी उड़ान देख देख कर
मुग्ध होती रही मेरी चेतना
तो क्या आज ही वह दिन है
जब
मुझे वह होना है
जो होने के बाद
मिट सा जाएगा
मेरे और तुम्हारा भेद
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जून २०११
4 comments:
मुक्त उड़ानें प्रस्तुत होती।
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा होगी शनिवार (25-06-11 ) को नई-पिरानी हलचल पर..रुक जाएँ कुछ पल पर ...! |कृपया पधारें और अपने विचारों से हमें अनुग्रहित करें...!!
Post a Comment