Wednesday, June 22, 2011

अनंत का आस्वादन


तब 
जब
निर्भर हो जाता है
प्यार का प्रवाह
इस-उस घटना पर
नियंत्रित हो जाता है आत्मीय स्पर्श
अनुकूलता और प्रतिकूलता के बीच

तब
सिमट जाता है
 सहज स्फूर्त सौंदर्य
सिमटा सिमटा अपने आप में
संकुचित हो जाता है मेरा संसार

सूख जाता है जुड़ाव
अपेक्षा के दंश से ग्रस्त
अपने अमृत कलश से दूर
एक विष बना कर
स्वयं को कलुषित करता
मैं
तड़पता, छटपटाता, कसमसाता

अपने इस घेरे से मुक्त होने
तुम्हें ऐसे पुकारता हूँ
जैसे मृत्यु की तरफ जाता  जाता
मगर के मुहँ में फंसा गजराज पुकारे

और
महिमा है तुम्हारी
ना जाने कैसे, कहाँ से मुस्कुरा कर
फिर मुक्त कर मुझे
खोल देते हो 
प्रेम का निष्कलंकित, स्व-निर्भर 
निर्मल, स्वच्छ, पावन प्रवाह

इस तरह
अनंत का आस्वादन करने की मेरी पात्रता
फिर से मुझे सुलभ करवा कर
तुम तो नहीं मांगते मुझसे कुछ
पर
मैं कृतज्ञता के साथ साथ
अपनी सुरक्षा के लिए भी
स्वयं को सौंप देना चाहता हूँ
पूरी तरह तुम्हें


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ जून २०११    
               

2 comments:

Anupama Tripathi said...

अपने इस घेरे से मुक्त होनेतुम्हें ऐसे पुकारता हूँजैसे मृत्यु की तरफ जाता जातामगर के मुहँ में फंसा गजराज पुकारे


नीर पीवन हेतु गयो ...
सिन्धु के किनारे ...
सिन्धु बीच बसत ग्राह ...
चरण धरी पछारे ...
अब तो जीवन ...हारे ...अब तो जीवन हारे ..!!
मैं कृतज्ञता के साथ साथअपनी सुरक्षा के लिए भीस्वयं को सौंप देना चाहता हूँपूरी तरह तुम्हें
sunder bhav ..!!

प्रवीण पाण्डेय said...

समर्पण में ही सुख है।

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