Friday, June 10, 2011

सम्भावना का खेल


होता है न
बच्चा कभी
ऐसी मनःस्थिति में
की फेंक देता है
हर खिलौना
न ये, न वो
सुहाता नहीं उसे
कोइ भी खेल
 
ऐसे अनमने बच्चे सा
गैस का गुब्बारा 
रुकती-  भागती हवा
ठुमकते - ठुमकते
लचकचाता धागा
 
दोस्त
आज फिर
सोच रहा हूँ
सीमा छोड़ देह की
अपना लूं विस्तार
मिल जाऊं कण कण में
 
नकारते हुए
हर सम्भावना का खेल
निर्वात के
आधे क्षण में
सोच रहा 
कैसे शांत हो
मन का कोलाहल
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
(आज नहीं न जाने कब लिखी थी ये कविता, आज आपके पास पहुँचने का अवसर पा रही है )              

1 comment:

vandana gupta said...

वाह अनुपम कृति।

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...