Sunday, June 5, 2011

आश्वस्त आनंद में


यह जो
उमड़ता है  भीतर
अनुनादित तुम्हारे स्वर से
झरना आनंद का
उल्लास के मेघ बरसते
पुलकित मन की धरा पर
सजता है उत्सव
कितने रूप लेकर
खेलते खिलते भी
तुम एक अकम्पित
समन्वित 
शक्ति पुंज
मंगलकारी
इस तरह अपने स्वर मात्र से
खिल सकते हो मुझमें
यानि
हर मनुज में

प्रश्न सारे लुप्त हो गए हैं जो
तुम्हारे आने पर
अब उनके फिर लौटने के बारे में
क्यूं सोचूँ

सोच से परे का
मद्धम उजाला फ़ैल रहा है
मेरे अस्तित्तव  में

साँसों में
इस तरह शाश्वत का सहज गान

 और तन्मय हुआ मैं
लीन हूँ उस स्वर में
जो उस पार से आता है
पर लगता है
इस पार भी स्वर वही है
जिससे अनुनादित हुआ
मैं झूम रहा हूँ
शुद्ध सरस आश्वस्त आनंद में

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जून २०११                   

2 comments:

Unknown said...

गूढ़ रहस्य समेटे आज की कविता बधाई

प्रवीण पाण्डेय said...

उसकी कृपा से आनन्द बहने लगता है।

सुंदर मौन की गाथा

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