यह जो
उमड़ता है भीतर
अनुनादित तुम्हारे स्वर से
झरना आनंद का
उल्लास के मेघ बरसते
पुलकित मन की धरा पर
सजता है उत्सव
कितने रूप लेकर
खेलते खिलते भी
तुम एक अकम्पित
समन्वित
शक्ति पुंज
मंगलकारी
इस तरह अपने स्वर मात्र से
खिल सकते हो मुझमें
यानि
हर मनुज में
प्रश्न सारे लुप्त हो गए हैं जो
तुम्हारे आने पर
अब उनके फिर लौटने के बारे में
क्यूं सोचूँ
सोच से परे का
मद्धम उजाला फ़ैल रहा है
मेरे अस्तित्तव में
साँसों में
इस तरह शाश्वत का सहज गान
और तन्मय हुआ मैं
लीन हूँ उस स्वर में
जो उस पार से आता है
पर लगता है
इस पार भी स्वर वही है
जिससे अनुनादित हुआ
मैं झूम रहा हूँ
शुद्ध सरस आश्वस्त आनंद में
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जून २०११
2 comments:
गूढ़ रहस्य समेटे आज की कविता बधाई
उसकी कृपा से आनन्द बहने लगता है।
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