Wednesday, June 1, 2011

होने न होने से परे



पाने और खोने से परे
यह जो
एक महीन आलोक है
मगन अपने आप में
पूर्णता की आभा लिए

निर्भर नहीं जिसका होना
किसी और के होने पर

इस आलोक के
आस पास से
आते जाते हम कई बार इसे देख ही नहीं पाते

क्यूंकि हम 
या तो खोये हुए की कसक में डूब जाते
या कुछ पाने की आस में मगन हो जाते

चल मन 
एक नया खेल करें
छुप्पा- छुप्पी इस बार ऐसे खेलें
की तुम छुप कर
उसे ढूंढ लाओ
जो छुपा हुआ है
तुम्हारे होने से

वैसे तुम्हारे होने में भी
है तो वही
पर छुप जाता है
उसका होना मेरे प्रति
क्यूंकि मैं
देख ही नहीं पाता तुम्हारे परे

चलो मन
इस बार ऐसा खेल खेलें
तुम हार कर जीतो
और 
मैं जीत कर हारूं
इस तरह
जब हार और जीत
एक समान हो जाएँ हमारे लिए
शायद खुले 
उसका होना 
हमारे लिए ऐसे
की
फिर खेल हमारा नहीं
बस उसका ही हो जाए
और हम
बस देखें
देखें और पिघल जाएँ
स्वर्णिम धारा में
होने न होने से परे


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ जून २०११        
     
      

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

द्वन्द से परे है उसका साम्राज्य।

सुंदर मौन की गाथा

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