हर बात से परे
एक शून्य का सा भाव प्रकट कर
उसके आलोकित वृत्त में रमते हुए
सहसा पुराने बीजों में से
अंकुरित होता है
कुछ नया
पहले कोपलें
फिर वृक्ष
इस वृक्ष के साथ
कितनी शताब्दियों से जुड़ा हुआ हूँ मैं
और हर बार
शून्य तक पहुँच कर
जब जब सोचा है
पूर्ण हो गयी यात्रा
न जाने कैसे
शरारती बच्चे की तरह
ये कुछ बीज चहक कर कहते हैं
अभी पूर्णता नहीं
अभी तो हम हैं
हमारी यात्रा है
उग कर तुम्हे लुभाने की
नचाने की
और तुम्हारे नृत्य में से
कुछ नए बीज बनाने की
अब उसकी गोद में बैठ कर
जिसके बीज से पनपा हूँ मैं
पूछ रहा हूँ
शून्य तक जाने का वह तरीका
की कोई बीज छुप कर
आ ना पाए मेरे साथ
यूं लगता है
उसने कहा है
'तुम मुझसे छुप कर
एक कदम भी मत चलो
बीज बनने ना पायेगा
प्रकट रहो
पूरी तरह मेरे प्रति
पूर्ण ही पाओगे
स्वयं को 'तत्क्षण'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ जून २०११
4 comments:
सत्य की बहुत सुन्दर विवेचना।
मन का विस्तार बढ़ाती पंक्तियाँ।
सुन्दर और अंतर तक भीगे अहसासों का बेहतरीन वर्णन ,सुन्दर कविता बधाई
प्रकट रहो
पूरी तरह मेरे प्रति
पूर्ण ही पाओगे
स्वयं को 'तत्क्षण'
bahut sunder bhav ..!!
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