Tuesday, May 31, 2011

आंतरिक शुद्धि




पहले हम जमा करते हैं
कुछ इसलिए की
होती है आवश्यकता
कुछ इसलिए की 
हो जाते हैं सक्षम
और फिर
वस्तुओं के प्रति
एक मोह सा
चुपचाप घर बना लेता है
हमारे भीतर

हम उन सब चीज़ों से
बंध जाते हैं
जो घेरे होती हैं हमें
फिर 
एक दिन
हम अपने ही बंदीगृह में बैठे
उस बिखराव को देखते हैं
जिसे पहले हम
विस्तार मान बैठे थे


चूक 
एक बार नहीं
निरंतर होती है
पर मुख्य रूप से
चूकना वह है
जिसमें हम
अपनी चूक को पहचानने से
चूक जाते हैं


मुक्ति के लिए
तीक्ष्ण स्पष्टता 
और
स्फूर्ति दोनों का साथ चाहिए

जाग्रति बाहरी परिवर्तन के लिए
आती तो है
भीतर से ही

और भीतर जाने के लिए
बाहर देखना होता है
ऐसे जैसे की वो है

भीतर से स्वच्छ हुए बिना
हो ही जाती है 
मिलावट हमारे देखने में
तो बात वहां तक पहुँची की
आंतरिक शुद्धि कोई वैकल्पिक नहीं
अनिवार्य विषय है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३१ मई २०११   
           

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

अपने संचय की कारा में हम सब।

सुंदर मौन की गाथा

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