कैसे हो जाता है सहसा
धूप में नाचते पत्तों के साथ
हवा का ये खेल
मुझमें फिर से
विराट का आलिंगन करने का
एक नया उत्साह सा भर देता है
एक निशब्द गीत
उतर का मेरी धडकनों से
गुनगुनाता है हर दिशा में
फल से लदी डालियाँ झूम झूम कर
बुला रही हों जैसे
किसी को
मेरे मन का रसीलापन
टप-टप टपकाता है
आनंद्वर्धक फल
अपने जीवन का उत्सव मनाने
सभी को आमंत्रित कर
छेड़ रहा हूँ
वो राग
जो परे ले जाता है
राग-द्वेष के
परम विस्तार को आत्मसात कर
जहाँ
अपने होने की यात्रा का
विराम मिल रहा है
यहाँ
आदि और अंत मिले हुए हैं इस तरह
की
सहज लगता है
इनसे परे तक देखना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ मई २०११
2 comments:
जीवन ही उत्सव है, आनन्द उठाने के लिये।
छेड़ रहा हूँ
वो राग
जो परे ले जाता है
राग-द्वेष के
sunder abhivyakti
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