Friday, May 27, 2011

शायद चला आये वह


लिखने से नहीं
करने से होगा
लिखना करना नहीं 
होना है

होना अपने साथ
वहां
जहाँ शून्य हो जाती हर बात
एक मौन सा रहता है साथ

और इस मौन में
खिल जाती है 
कोइ मधुर बात
जिस पर
असर नहीं करता कोइ आघात

शाश्वत हरियाली का सावन आता है
कैसे हो जाता है ऐसा
कालातीत स्वयं
एक क्षण में समाता है
खिलखिला कर हमें खिलाता है

 
जब जब 
ऐसे अनुपम, अलौकिक से क्षण को
सहेजने के प्रयास में
कुछ बनता-बनाता हूँ
ना जाने कैसे
इस निश्छल क्षण की आभा से
दूर हो जाता हूँ
वह नियंत्रण से परे है
है तो है
नहीं है तो नहीं है

फिर भी
लिख लिख कर
बुनता हूँ
वह वातावरण
जिससे खिंच कर
शायद चला आये वह
जो
न कहीं आता है
न जाता है
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२७ मई २०११    

कुछ बनाता हूँ
या स्वयं

2 comments:

Rakesh Kumar said...

अदभुत,अदभुत,अदभुत.
कमाल की उडान भरी आपने
और शब्द नहीं हैं मेरे पास
अशोक जी,आप पर साक्षात गुरू कृपा है.

अबसे कुछ दिनों के लिए यूरोप का टूर है.
आपके ब्लॉग पर आने से वंचित हो जाऊं शायद.

आपको सस्नेह सादर नमन.

Anupama Tripathi said...

फिर भी
लिख लिख कर
बुनता हूँ
वह वातावरण
जिससे खिंच कर
शायद चला आये वह
जो
न कहीं आता है
न जाता है

sunder bhav .

सुंदर मौन की गाथा

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