Wednesday, May 18, 2011

अंजुरी प्यार की


सत्य वही नहीं
जो दीखता है
सत्य वह भी नहीं जो 
बना लेते हम
अपनी सीमित समझ से
सत्य वह है
जो हमें बना कर 
देखता है
की कितने सजग हैं हम
आस-पास के खिलौनों से परे
उसे देखने में
जो सत्य रहता है हमेशा 
 
 
प्रवाह में अपने
अहंकार के जाल से
जिस मछली को पकड़ कर
मूल मान लिया है धारा का
 
वह मछली
अपने साथ 
उद्वेलित करने वाली गंध भी लाई है
कभी ईर्ष्या, कभी लोभ, कभी क्रोध
और कभी असहनीय छटपटाहट भोगती
यह मछली
अपनी गंध के साथ एकमेक कर हमें
भुला देती है
हमसे हमारा परिचय
 
 
अनवरत प्रवाह
हंस हंस कर
देता है आमंत्रण
आओ, तट छोड़ कर
जाल नहीं
अंजुरी प्यार की
पर्याप्त है
 
रम जाओ 
अनवरत प्रवाह में
सहज उछलते
नित्य मुक्त विस्तार में 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ मई २०११  

3 comments:

Anupama Tripathi said...

रम जाओ
अनवरत प्रवाह में
सहज उछलते
नित्य मुक्त विस्तार में

मन यही चाहता है कि प्रवाहमान जीवन रहे और हम रम जाएँ नित्य मुक्त विस्तार में ...!!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .

Rakesh Kumar said...

सत्य वह है
जो हमें बना कर
देखता है
की कितने सजग हैं हम
आस-पास के खिलौनों से परे
उसे देखने में
जो सत्य रहता है हमेशा

बहुत सही लिखा है आपने.सत्य ही हमें इस लायक बनाता है जिससे कि हम दुनियावी आडम्बर से मुक्त होकर असीम सत्य का दर्शन करने में सैदेव तत्पर रहते हैं जिसे ईश्वर भी कहतें हैं.
इसके लिए 'अंजुरी प्यार की' पर्याप्त हैं.क्यूंकि वह 'भाव' का ही तो भूखा है.

प्रवीण पाण्डेय said...

न जाने कितने कल्पनीय सत्यों से ठूँस कर भर लिया है हमने अपना अंतःकरण।

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