अब बहुत हो चुकी प्रतीक्षा
ना जाने कब से
इस घर को सहेजे हूँ
सुरक्षित रखे हूँ
तुम्हारे लिए
और अब
मैं भी इसे छोड़ कर
भाग जाना चाहता हूँ
उस जंगल में
जहाँ तुम
काल पुरुष का पीछा करते करते
चले गए थे एक दिन
क्या तुम काल मुक्त हुए?
या तुम्हारी मुक्ति की प्रतीक्षा में बंधा मैं
बीतता रहा
इसी परिधि में
एक स्वर्णिम क्षण के लिए
२
आज सौंप कर
घर की चाबियाँ
आकाश को
लो चला मैं
मुक्ति के नए सोपान ढूंढता
तुम्हारी तलाश में
वैसे
तुम्हें ढूंढना
अपने आपको ढूंढना है
और पा लेना है
अपना वह पता
जो किसी घर पर निर्भर नहीं रहता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ मई 2011
3 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
सब यही छोड़कर जाना है।
और पा लेना है
अपना वह पता
जो किसी घर पर निर्भर नहीं रहता
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो .......!!
अमूल्य कृति ...आभार.
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