Saturday, May 7, 2011

एक स्वर्णिम क्षण के लिए


अब बहुत हो चुकी प्रतीक्षा
ना जाने कब से
इस घर को सहेजे हूँ
सुरक्षित रखे हूँ
तुम्हारे लिए
और अब
मैं भी इसे छोड़ कर
भाग जाना चाहता हूँ
उस जंगल में
जहाँ तुम
काल पुरुष का पीछा करते करते
चले गए थे एक दिन
 
क्या तुम काल मुक्त हुए?
 
या तुम्हारी मुक्ति की प्रतीक्षा में बंधा मैं
बीतता रहा
इसी परिधि में
एक स्वर्णिम क्षण के लिए
 
 
आज सौंप कर
घर की चाबियाँ
आकाश को
लो चला मैं
मुक्ति के नए सोपान ढूंढता
तुम्हारी तलाश में
वैसे
तुम्हें ढूंढना
अपने आपको ढूंढना है
 और पा लेना है
अपना वह पता 
जो किसी घर पर निर्भर नहीं रहता
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ मई 2011        

3 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

प्रवीण पाण्डेय said...

सब यही छोड़कर जाना है।

Anupama Tripathi said...

और पा लेना है
अपना वह पता
जो किसी घर पर निर्भर नहीं रहता


पायो जी मैंने राम रतन धन पायो .......!!
अमूल्य कृति ...आभार.

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