हम एक दुसरे के हिस्से का
सुख-दुःख
बाँट सकते है
कुछ हद तक
पर कोई किसी का हाथ
पकड़ कर
नहीं ले जा सकता
सरहद तक
ये भी उसका विधान है
की वैसे रास्ता आसान है
पर किसी न किसी बात पर
हर तरफ घमासान है
पार जाने की ललक
जब तक भीतर से नहीं आती
सारी सुविधाएँ
और अनुकूलता धरी रह जाती
ये जो भीतर का साम्राज्य है
यहाँ बैठ कर कोई हमें नित्य छलता है
और वो इतना चतुर है की
ठग लिए जाने का पता भी नहीं चलता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ अप्रैल २०११
3 comments:
पार जाने की ललक
जब तक भीतर से नहीं आती
सारी सुविधाएँ
और अनुकूलता धरी रह जाती
भीतर का साम्राज्य बहुत प्रबल है ..!!
उससे होती, नित्य लड़ाई।
sahee baat hai praveen Bhaee
Bheetar ke samrajya kee prabalta pehchaanne ke liye naman Anupamajee
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