Saturday, April 30, 2011

सूरज उसकी मुट्ठी में है


उसने ये दावा किया
की सूरज उसकी मुट्ठी में है
और लोग
सूरज की तरफ देखना छोड़ कर
उसके पीछे हो लिए

 अपमानित होने से परे है ईश्वर
पर
कुछ तो टूटता है
परम्पराओं के छिछले विश्लेषण से,
जिन्हें नींव होना चाहिए 
समाज की
वे बन कर रह जाते आभूषण से,

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अभी तक
वही किस्सा दोहराया जा रहा है
छल करने के लिए
पुराना नुस्खा आजमाया जा रहा है
हम बैठ गए है
सम्मोहित होकर, सरल समाधान के लिए
हमारी आँखों पर
शब्दों का नया काजल लगाया जा रहा है

कुछ इधर से आये
कुछ उधर से 
कुछ सम्मानित होने आये
कुछ सम्मान का नाटक देखने
सब मिल कर
इधर- उधर से
झूठ के गलियारे में
आँखों पर पट्टी बांध कर
आकाश के विस्तार का गुणगान करते रहे

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वो सब मिल कर
अपनी-अपनी समझ से
जैसे-जैसे करते हैं 
मानवता की सेवा

कहीं कोइ एक त्रुटि के कारण
उस सेवा के फलस्वरूप
गिरती जाती है मानवता
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प्रमाणिकता का परिचय
कहाँ छोड़ आये हम
कुछ देर भी
इस पर विचार किये बिना

स्वयं को प्रमाणिक मानने वालों 
से चमत्कृत
मिल जुल कर
मायार्पण करते रहे 
हम
एक सम्भावना का

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हमें सम्भावना लुभाती है
हम सीमाओं से परे जाने की छटपटाहट में
एक सीमा से छूटते हुए
अपने 
समग्र विकास की सम्भावना को
नकार देते हैं

पर अपनी इस हानि का अफ़सोस नहीं होता हमें

हमें पता ही नहीं की
हमने क्या खोया है

हम उसके पीछे लगे हैं
जिसने ये दावा किया
की सूरज उसकी मुट्ठी में है
और वो
कुछ किरणे हमारे हवाले करके
हमें भी कर सकता है 
मालामाल 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० अप्रैल २०११


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, ३० अप्रैल २०११  

3 comments:

Anupama Tripathi said...

जिन्हें नींव होना चाहिए समाज कीवे बन कर रह जाते आभूषण से,

अत्यंत क्लिष्ट और गहन भाव ..!!ये रूप मानव का कहीं दुखी भी करता है ....समग्र विकास के प्रति हम क्यों जागरूक नहीं हैं ....!!

प्रवीण पाण्डेय said...

शक्ति वही सामर्थ्य वही है।

Arun sathi said...

कितनी गहरी बात कह दी सरजी। आपको भी कहीं हम सूरज को मुठठी में रखने वाला न समझ ले।

एक एक पंक्ति पढ़ता हूं, फिर समझता हूं, रूक का सोंचता हूं, फिर पढ़ता हूं।

शब्दों का नया काजल। एक दम सही बात है। लगता है देश से दूर रह कर भी देश के दर्द को मदसूस रहें है।


यही होता है, आकाश के विस्तार का गुणगाण रोज व रोज देखता हूं, कहीं करता भी हूं।

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