Thursday, April 21, 2011

छुपा-छुप्पी का रसमय खेल


कविता नहीं लिखता
वह
सहेजता है 
आन्तरिक वैभव
और भाव पुष्प चुन चुन कर
कर देता अर्पित
नित्य नूतन को


कविता नहीं लिखता वह
सजगता से
बंद कर देता है
छिद्र नौका का
डूबने से बचाते शब्द
हर दिन उसे


कविता नहीं
स्वयं को देखने का
एक पावन क्रम
ले जाता है 
हाथ पकड़ कर
सतह से नीचे
जैसे कोई पोता
अपने दादा की अंगुली पकड़ कर
चलना सीखे

और फिर
चलता हो किसी दिन
सांझ के बेला में
बाबा का हाथ पकड़
मंदिर की पगडंडी पर
ये देखता की 
किसी पत्थर से ना टकरा जाए
पाँव बूढ़े दादा का


कविता नहीं
जीवन लिखता है वह

जीवन होना है

कविता होने की प्रक्रिया को
जन्म देती, पालती-पोसती
सार्थकता का सिंचन करती है
साँसों में

सार-धार में
अक्षय प्रेम की झिलमिलाहट
चमकती है
दिन की छाती पर

कविता अपने उजियारे से
सुनहरा का देती है काल

हर दिन को उत्सव बना देता
एक कोई
कविता में छुप कर

कविता खेलती है
उसी 'एक' के  साथ
           छुपा-छुप्पी का रसमय खेल         
   

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
      गुरुवार, २१ अप्रैल २०११        

2 comments:

Anupama Tripathi said...

कविता नहींस्वयं को देखने काएक पावन क्रमले जाता है हाथ पकड़ करसतह से नीचेजैसे कोई पोताअपने दादा की अंगुली पकड़ करचलना सीखे
और फिरचलता हो किसी दिनसांझ के बेला मेंबाबा का हाथ पकड़मंदिर की पगडंडी परये देखता की किसी पत्थर से ना टकरा जाएपाँव बूढ़े दादा का


अति सुंदर भाव पुष्प ....!!कमाल है ....आज आपकी कविता दादा पोते के रिश्ते का वर्णन कर रही है -और कल रात ही मैंने अपनी पोस्ट पर दादी को श्रद्धांजलि दी है ...!!इश्वर ही लुका छिपी खेल रहे हैं ...!!

प्रवीण पाण्डेय said...

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