बस धीरे धीरे
पुकार की श्रंखला का
हो ही जाता है असर,
एक दिन माँ
अनछुए उजियारे से
भर देती है घर
कण कण में जाग्रत हो जाते
मधुर आश्वस्ति के
दुर्लभ स्पंदन,
संशयों से छूट कर
शुद्धि में
निखर जाता मन
फिर
एक हो जाते
प्यार, पुकार और
अनंत का सत्कार,
ऐसे
एक मंगलमय ज्योत्स्ना
कर देती
जीवन-मृत्यु के पार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० अप्रैल 2011
4 comments:
ऐसे ही एक स्पंदन की प्रतीक्षा में जीवन।
उज्जवल विश्वास से भरी रचना |
धन्यवाद प्रवीणजी, अनुपमा जी और वंदनाजी
vishwas se paripoorn rachna.
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